आध्यात्मिक ज्ञान (इल्म-ए-बातिनी) की ख़ासियत हैं, नर्मी, खुद को छोटा समझना, रहमदिली और नर्मदिली।
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दुनियादारी के पर्दे में दीनदारी (धार्मिकता) करना, लेकिन दीनदारी के पर्दे में दुनियादारी मत करना।
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मुरीद अपने मुर्शिद का हुक्म पूरा करना अपना फ़र्ज़ समझे और मुर्शिद अपने मुरीद की ख़िदमत को ख़ुद पर मुरीद का एहसान माने।
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समाँ का कमाल ये है कि जैसे बांसुरी के सुरों या क़व्वाली के बोलों से सुनने वालों की एक ख़ास तरह की हालत हो जाती है, वैसी ही हालत घोड़े की टाप की आवाज़ सुन कर भी हो जाए।
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हमने एक ज़माने तक बहुत दुख झेले, फटा हुआ जूता पहनते थे, एक फटा हुआ लिहाफ़ था, जिसे सर्दियों में ओढ़ते और गर्मियों में उसी को बिछा लेते थे। जब तक मुरीद तकलीफ़ नहीं उठाएगा, वह ग़रीबों का हाल कैसे समझेगा?